अपने ही साए से हर गाम लरज़ जाता हूँ
मुझ से तय ही नहीं होती है मसाफ़त मेरी
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नज़्म
लम्बी है बहुत आज की शब जागने वालो
इक तू ने ही नहीं की जुनूँ की दुकान बंद
अब मुझ में कोई बात नई ढूँढने वालो
ये काएनात भी क्या क़ैद-ख़ाना है कोई
दिल जो टूटा है तो फिर याद नहीं है कोई
सुनते हैं बयाबाँ भी कभी शहर रहा था
वो मुज़्तरिब था बहुत मुझ को दरमियाँ कर के
हम किसी और वक़्त के हैं असीर
तिरी दुआएँ भी शामिल हैं कोशिशों में मिरी
आँख ही आँख थी मंज़र भी नहीं था कोई
सहरा कोई बस्ती कोई दरिया है कि तुम हो