अजीब फ़ुर्सत-ए-आवारगी मिली है मुझे
बिछड़ के तुझ से ज़माने का डर नहीं है कोई
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मैं जिस को सोचता रहता हूँ क्या है वो आख़िर
हम किसी और वक़्त के हैं असीर
ख़्वाब मैले हो गए थे उन को धोना चाहिए था
वो चेहरा मुझे साफ़ दिखाई नहीं देता
एक दिन उस की निगाहों से भी गिर जाएँगे
उस से कह दो कि मुझे उस से नहीं मिलना है
मैं अपने-आप से आगे निकल गया हूँ बहुत
हर लम्हे मैं सदियों का अफ़्साना होता है
ताबिश-ए-गेसू-ए-ख़मदार लिए फिरता है
दिल जो टूटा है तो फिर याद नहीं है कोई
उसी के ख़्वाब थे सारे उसी को सौंप दिए
न रात बाक़ी है कोई न ख़्वाब बाक़ी है