अब जिस्म के अंदर से आवाज़ नहीं आती
अब जिस्म के अंदर वो रहता ही नहीं होगा
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ख़्वाब मैले हो गए थे उन को धोना चाहिए था
बात तो ये है कि वो घर से निकलता भी नहीं
किसी ने जाँ ही लुटा दी वफ़ाओं की ख़ातिर
मिलते हो तो अब तुम भी बहुत रहते हो ख़ामोश
आँख ही आँख थी मंज़र भी नहीं था कोई
मैं तो अब शहर में हूँ और कोई रात गए
ज़ीस्त की यकसानियत से तंग आ जाते हैं सब
उस से कह दो कि मुझे उस से नहीं मिलना है
जो तुम कहते हो मुझ से पहले तुम आए थे महफ़िल में
ताबिश-ए-गेसू-ए-ख़मदार लिए फिरता है
नज़्म
देर तक जागते रहने का सबब याद आया