चुप रहूँगा तो ज़बाँ यूँ भी रहेगी बेकार
और बोलों तो ज़बाँ काट ही ली जाएगी
क्यूँ न कुछ बोल ही लूँ मैं कि पस-ए-क़त्ल-ए-ज़बाँ
ये तो अफ़्सोस न होगा कि ज़बाँ रहते हुए
मुझ को इज़हार-ए-ख़यालात की जुरअत न हुई
मुझ से इस ज़ुल्म-ओ-सितम की भी शिकायत न हुई
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अपनी सूरत को बदलना ही नहीं चाहता मैं
बात तो ये है कि वो घर से निकलता भी नहीं
दिल जो टूटा है तो फिर याद नहीं है कोई
न चाँद का न सितारों न आफ़्ताब का है
तमाम उम्र ब-क़ैद-ए-सफ़र रहा हूँ मैं
तो देखें और किसी को जो वो नहीं मौजूद
शरीक वो भी रहा काविश-ए-मोहब्बत में
मिलते हो तो अब तुम भी बहुत रहते हो ख़ामोश
इक तू ने ही नहीं की जुनूँ की दुकान बंद
अजीब फ़ुर्सत-ए-आवारगी मिली है मुझे
हर लम्हे मैं सदियों का अफ़्साना होता है
आँख ही आँख थी मंज़र भी नहीं था कोई