ताबिश-ए-गेसू-ए-ख़मदार लिए फिरता है
कोई इस शहर में तलवार लिए फिरता है
बात तो ये है कि वो घर से निकलता भी नहीं
और मुझ को सर-ए-बाज़ार लिए फिरता है
जिस्म के साथ तो रहता हूँ मैं इस पार मगर
रूह के साथ वो उस पार लिए फिरता है
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न चाँद का न सितारों न आफ़्ताब का है
अब मुझ में कोई बात नई ढूँढने वालो
अब जिस्म के अंदर से आवाज़ नहीं आती
अजीब फ़ुर्सत-ए-आवारगी मिली है मुझे
नज़्म
इब्तिदा उस ने ही की थी मिरी रुस्वाई की
तिरी दुआएँ भी शामिल हैं कोशिशों में मिरी
तो देखें और किसी को जो वो नहीं मौजूद
तमाम उम्र ब-क़ैद-ए-सफ़र रहा हूँ मैं
हम किसी और वक़्त के हैं असीर
मैं अपने-आप से आगे निकल गया हूँ बहुत