आँख ही आँख थी मंज़र भी नहीं था कोई
आँख ही आँख थी मंज़र भी नहीं था कोई
तू नहीं तेरे बराबर भी नहीं था कोई
मेरे बाहर तो किसी मौत का सन्नाटा था
ऐसी तन्हाई कि अंदर भी नहीं था कोई
क्या तमाशा है कि फिर जिस्म मिरा भीग गया
रास्ते में तो समुंदर भी नहीं था कोई
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