रात की सरहद यक़ीनन आ गई
जिस्म से साया जुदा होने लगा
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हमारा शेर भी लौह-ए-तिलिस्म है शायद
तिलिस्म तोड़ दिया इक शरीर बच्चे ने
शहर भर के आईनों पर ख़ाक डाली जाएगी
इस से पहले कि सर उतर जाएँ
लम्हा लम्हा तजरबा होने लगा
चंद लम्हे को तू ख़्वाबों में भी आ कर झाँक ले
ग़म का सूरज तो डूबता ही नहीं
सफ़ीना मौज-ए-बला के लिए इशारा था
हम अपने जलते हुए घर को कैसे रो लेते
आरज़ूओं की रुतें बदले ज़माने हो गए