जनाब-ए-शैख़ अपने वाज़ में रोज़ाना बरसों से
सुनाए जा रहे हैं एक ही अफ़्साना बरसों से
डिश-ऐन्टेना के रस्ते रोज़ आती हैं मिरे घर में
वो हूरें जिन के चक्कर में हैं ये मौलाना बरसों से
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कोई ख़ुश-ज़ौक़ ही 'शाहिद' ये नुक्ता जान सकता है
लबों में आ के क़ुल्फ़ी हो गए अशआर सर्दी में
ख़बर है मेरी रुस्वाई की
शादी के जो अफ़्साने हैं रंगीन बहुत हैं
कुछ मह-जबीं लिबास के फैशन की दौड़ में
क़ाबिज़ रहा है दिल पे जो सुल्तान की तरह
बढ़ती रही हर साल जो तादाद हमारी
इस्लामाबाद
पागल लड़की
हम ने तो उन्हें जामिआ से नक़्द ख़रीदा
नहले पे दहला
वही मक़्बूल लीडर और डिप्लोमैट होता है