उन को देखा तो तबीअ'त में रवानी आई
उन को देखा तो तबीअ'त में रवानी आई
दिल के उजड़े हुए गुलशन पे जवानी आई
प्यास क्या उस की बुझाएँगे कोई आरिज़-ओ-लब
लब-ए-दरिया न जिसे प्यास बुझानी आई
गर्मी-ए-रंज-ओ-अलम ही में बसर की हम ने
ज़िंदगी में तो कोई रुत न सुहानी आई
उस का उन्वान तिरा नाम ही रक्खा हम ने
भूली-बिसरी जो कोई याद कहानी आई
हम मोहब्बत का भी मीनार बना सकते थे
हम को नफ़रत की न दीवार गिरानी आई
देख कर उस गुल-ए-शादाब को इक महफ़िल में
बा'द मुद्दत के फिर इक याद पुरानी आई
आरज़ू दिल को थी ऐ 'सोज़' ग़ज़ल-ख़्वानी की
रास आई तो हमें मर्सिया-ख़्वानी आई
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