तसव्वुरात की दुनिया सजाए बैठे हैं
तसव्वुरात की दुनिया सजाए बैठे हैं
किसी की आस को दिल से लगाए बैठे हैं
फ़रेब उम्र दो रोज़ा का खाए बैठे हैं
बताएँ क्या कि जो सदमा उठाए बैठे हैं
न जाने किस घड़ी आ जाएँ ढूँडते हम को
चराग़ दिन में भी दर पर जलाए बैठे हैं
सुना है जब से दुआएँ क़ुबूल होती हैं
दुआ को हाथ हम अपने उठाए बैठे हैं
वो आ रहे हैं कोई कह रहा है कानों में
चराग़ दीद का हम तो बुझाए बैठे हैं
ग़रीब-ख़ाने की सारी फ़ज़ा मोअ'त्तर है
ये लग रहा है वो आए हैं आए बैठे हैं
न पूछ कैसे शब-ए-इंतिज़ार गुज़री है
न छेड़ हम को सबा हम सताए बैठे हैं
ख़बर कहाँ है ज़माने की 'सोज़' हम उस को
किसी के इश्क़ में ख़ुद को भुलाए बैठे हैं
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