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दर-ए-मय-कदा है खुला हुआ सर-ए-चर्ख़ आज घटा भी है - सरदार सोज़ कविता - Darsaal

दर-ए-मय-कदा है खुला हुआ सर-ए-चर्ख़ आज घटा भी है

दर-ए-मय-कदा है खुला हुआ सर-ए-चर्ख़ आज घटा भी है

चले दौर-ए-साक़ी-ए-दिल-रुबा कि चमन में रक़्स-ए-सबा भी है

ग़म-ए-ज़िंदगी सही जाँ-गुसिल मगर इस से कोई बचा भी है

यही ग़म है राज़-ए-नशात-ए-दिल यही ज़िंदगी का मज़ा भी है

यही ज़ख़्म-ए-दिल जो नसीब है यही सोज़-ए-दिल का नक़ीब है

ये मिरे ख़ुलूस का रंग है किसी नाज़नीं की अता भी है

है मिरी निगाह में सिर्फ़ तू किसी और की नहीं जुस्तुजू

तिरे इल्तिफ़ात की आरज़ू तिरी बे-रुख़ी का गिला भी है

मुझे क्या उड़ाएँगे बाल-ओ-पर कि क़फ़स में उम्र हुई बसर

मैं रिहा हुआ भी कभी अगर तो रिहाई मेरी सज़ा भी है

मिरी दास्ताँ भी अजीब है ये किसी किसी का नसीब है

कहीं ज़िक्र-ए-बाद-ए-सुमूम है कहीं ज़िक्र-ए-मौज-ए-सुबा भी है

न तू उज़्व-ए-जाह पे फ़ख़्र कर कि ये ज़िंदगी तो है इक सफ़र

तुझे क्या ख़बर अरे बे-ख़बर दबे पाँव पीछे क़ज़ा भी है

जो बहार फ़स्ल-ए-शबाब थी वो मिसाल-ए-अब्र गुज़र गई

नहीं ज़िंदगी में कोई ख़ुशी कि ख़िलाफ़ मेरे हवा भी है

वो ब-ज़ो'म-ए-हुस्न हैं ख़ुद-निगर तो मुझे भी नाज़ है इश्क़ पर

मैं नियाज़-मंद सही मगर मुझे 'सोज़' पास-ए-अना भी है

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In Hindi By Famous Poet Sardar Soz. is written by Sardar Soz. Complete Poem in Hindi by Sardar Soz. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.