ऐसा नहीं कि उन से मोहब्बत नहीं मुझे
ऐसा नहीं कि उन से मोहब्बत नहीं मुझे
इफ़्शा-ए-राज़-ए-इश्क़ की जुरअत नहीं मुझे
जल्वे हैं उन के नौ-ब-नौ मेरी निगाह में
अब उन को ग़म ये है ग़म-ए-फ़ुर्क़त नहीं मुझे
रखना है उन के पाँव पे जा कर सर-ए-नियाज़
रुक जा अजल क्या इतनी भी मोहलत नहीं मुझे
शोरीदगी-ए-इश्क़ कहाँ ले के आ गई
फूलों से भी जहाँ कोई रग़बत नहीं मुझे
होती है उन से पहरों तसव्वुर में गुफ़्तुगू
सोचूँ कुछ और इतनी भी फ़ुर्सत नहीं मुझे
रुस्वा जहाँ में कर दिया उस जज़्ब-ए-शौक़ ने
मक़्सूद वर्ना इश्क़ में शोहरत नहीं मुझे
इस दर्जा झूट सुनता रहा हूँ तमाम उम्र
सुनने की सच भी अब कोई आदत नहीं मुझे
अब उन से हाल-ए-दिल मैं बयाँ 'सोज़' क्या करूँ
अपनी ज़बान पर भी तो क़ुदरत नहीं मुझे
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