वक़्त के सहरा में नंगे पाँव ठहरे हो 'सलीम'
धूप की शिद्दत यकायक बढ़ न जाए चल पड़ो
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आज दीवाने का ज़ौक़-ए-दीद पूरा हो गया
फ़िक्र ओ एहसास के तपते हुए मंज़र तक आ
दिन-ब-दिन सफ़्हा-ए-हस्ती से मिटा जाता हूँ
बढ़ रहे हैं शाम के मौहूम साए चल पड़ो
कुछ ऐसा हो कि तस्वीरों में जल जाए तसव्वुर भी
एक ही ज़िंदा बचा है ये निराला पागल
कभी सुर्ख़ी से लिखता हूँ कभी काजल से लिखता हूँ
मौजा-ए-रेग-ए-रवान-ए-ग़म में बह के देखना
'ग़ालिब'-ए-दाना से पूछो इश्क़ में पड़ कर सलीम
नूर की शाख़ से टूटा हुआ पत्ता हूँ मैं