नूर की शाख़ से टूटा हुआ पत्ता हूँ मैं
वक़्त की धूप में मादूम हुआ जाता हूँ
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बना देगी ज़मीं को आज शायद आसमाँ बारिश
बढ़ रहे हैं शाम के मौहूम साए चल पड़ो
फ़िक्र ओ एहसास के तपते हुए मंज़र तक आ
बादशाहत के मज़े हैं ख़ाकसारी में 'सलीम'
कभी सुर्ख़ी से लिखता हूँ कभी काजल से लिखता हूँ
आज दीवाने का ज़ौक़-ए-दीद पूरा हो गया
मौजा-ए-रेग-ए-रवान-ए-ग़म में बह के देखना
कुछ ऐसा हो कि तस्वीरों में जल जाए तसव्वुर भी
अजब हैं सूरत-ए-हालात अब के
ख़मोशी में छुपे लफ़्ज़ों के हुलिए याद आएँगे
वक़्त के सहरा में नंगे पाँव ठहरे हो 'सलीम'