फ़िक्र ओ एहसास के तपते हुए मंज़र तक आ
मेरे लफ़्ज़ों में उतर कर मिरे अंदर तक आ
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बढ़ रहे हैं शाम के मौहूम साए चल पड़ो
ख़मोशी में छुपे लफ़्ज़ों के हुलिए याद आएँगे
नूर की शाख़ से टूटा हुआ पत्ता हूँ मैं
आज दीवाने का ज़ौक़-ए-दीद पूरा हो गया
एक ही ज़िंदा बचा है ये निराला पागल
अजब हैं सूरत-ए-हालात अब के
दिन-ब-दिन सफ़्हा-ए-हस्ती से मिटा जाता हूँ
'ग़ालिब'-ए-दाना से पूछो इश्क़ में पड़ कर सलीम
वक़्त के सहरा में नंगे पाँव ठहरे हो 'सलीम'
मौजा-ए-रेग-ए-रवान-ए-ग़म में बह के देखना