आज दीवाने का ज़ौक़-ए-दीद पूरा हो गया
तुझ को देखा और उस के बाद अंधा हो गया
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दिन-ब-दिन सफ़्हा-ए-हस्ती से मिटा जाता हूँ
मौजा-ए-रेग-ए-रवान-ए-ग़म में बह के देखना
फ़िक्र ओ एहसास के तपते हुए मंज़र तक आ
नूर की शाख़ से टूटा हुआ पत्ता हूँ मैं
कभी सुर्ख़ी से लिखता हूँ कभी काजल से लिखता हूँ
बढ़ रहे हैं शाम के मौहूम साए चल पड़ो
ख़मोशी में छुपे लफ़्ज़ों के हुलिए याद आएँगे
अजब हैं सूरत-ए-हालात अब के
वहम जैसी शुकूक जैसी चीज़
बना देगी ज़मीं को आज शायद आसमाँ बारिश