दिन-ब-दिन सफ़्हा-ए-हस्ती से मिटा जाता हूँ
दिन-ब-दिन सफ़्हा-ए-हस्ती से मिटा जाता हूँ
एक जीने के लिए कितना मरा जाता हूँ
अपने पैरों पे खड़ा बोलता पैकर हूँ मगर
आहटों की तरह महसूस किया जाता हूँ
तू भी जैसे मिरी आँखों में खिंचा जाता है
मैं भी जैसे तिरी साँसों समा जाता हूँ
नूर की शाख़ से टूटा हुआ पत्ता हूँ मैं
वक़्त की धूप में मादूम हुआ जाता हूँ
साथ छूटा तो कड़ा वक़्त ज़रूर आएगा
आप कहते हैं तो बे-शक मैं चला जाता हूँ
हादसे जितना मुझे दूर किए देते हैं
उतना मंज़िल से मैं नज़दीक हुआ जाता हूँ
देखने में तो मैं ज़र्रा नज़र आता हूँ 'सलीम'
देखते देखते ख़ुर्शीद पे छा जाता हूँ
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