दुआ कीजे वो बरगद और भी फूले-फले बरसों
दुआ कीजे वो बरगद और भी फूले-फले बरसों
कि जिस की छाँव में हम आप से मिलते रहे बरसों
कोई जुगनू भटकता आ गया तो आ गया वर्ना
चराग़-ए-क़ब्र बन कर हम अकेले ही जले बरसों
ये संग-ए-मील भी पहले कोई भटका मुसाफ़िर था
जिसे अपनी ही मंज़िल ढूँडने में लग गए बरसों
ये सर जो काट कर टाँगे गए हैं इन फ़सीलों पर
इसी आतिश-बयानी से रहेंगे बोलते बरसों
अजब सी मौसमी फ़ितरत है अपने देवताओं की
नहीं पहचानते वो हम जिन्हें पूजा किए बरसों
न तुम होगे न हम होंगे न अपनी महफ़िलें 'पंछी'
ख़ला में गूँजते रह जाएँगे ये क़हक़हे बरसों
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