ज़ाहिद नमाज़ भूला इधर देख कर तुझे
बरहम बुतों से अपने उधर बरहमन हुआ
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की मय से हज़ार बार तौबा
वुसअ'त-ए-बहर-ए-इश्क़ क्या कहिए
हैं वही इंसाँ उठाते रंज जो होते ही कज
ब-जुज़ साया तन-ए-लाग़र को मेरे कोई क्या समझे
तेरी महफ़िल में जितने ऐ सितम-गर जाने वाले हैं
गरेबाँ हम ने दिखलाया उन्हों ने ज़ुल्फ़ दिखलाई
खोला दरवाज़ा समझ कर मुझ को ग़ैर
हैं बहुत देखे चाहने वाले
तिरा आना मिरे घर हो गया घर ग़ैर के जाना
आ किधर है तू साक़ी-ए-मख़मूर
डराएगी हमें क्या हिज्र की अँधेरी रात
जब बोसा ले के मुद्दआ' मैं ने बयाँ किया