ज़ाहिद मिरी समझ में तो दोनों गुनाह हैं
तू बुत-शिकन हुआ जो मैं तौबा-शिकन हुआ
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देखा किसी का हम ने न ऐसा सुना दिमाग़
कुछ बद-गुमानियाँ हैं कुछ बद-ज़बानियाँ हैं
नाला शब-ए-फ़िराक़ जो कोई निकल गया
धर के हाथ अपना जिगर पर मैं वहीं बैठ गया
जो तुम्हें याद किया करते हैं
जिस का राहिब शैख़ हो बुत-ख़ाना ऐसा चाहिए
शैख़ चल तू शराब-ख़ाने में
तुम जाओ रक़ीबों का करो कोई मुदावा
काबा को अगर मानें कि अल्लाह का घर है
गरेबाँ हम ने दिखलाया उन्हों ने ज़ुल्फ़ दिखलाई
नासेहा आया नसीहत है सुनाने के लिए
मिरा ये ज़ख़्म सीने का कहीं भरता है सीने से