न चलो मुझ से तुम रक़ीबो चाल
उँगलियों पर तुम्हें नचा दूँगा
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पीते हैं जो शराब मस्जिद में
उन बुतों से रब्त तोड़ा चाहिए
वुसअ'त-ए-बहर-ए-इश्क़ क्या कहिए
धर के हाथ अपना जिगर पर मैं वहीं बैठ गया
आ किधर है तू साक़ी-ए-मख़मूर
गो हम शराब पीते हमेशा हैं दे के नक़्द
खोला दरवाज़ा समझ कर मुझ को ग़ैर
डराएगी हमें क्या हिज्र की अँधेरी रात
ज़ाहिद नमाज़ भूला इधर देख कर तुझे
इलाही ख़ैर हो वो आज क्यूँ कर तन के बैठे हैं
काली घटा कब आएगी फ़स्ल-ए-बहार में
हैं वही इंसाँ उठाते रंज जो होते ही कज