लटकते देखा सीने पर जो तेरे तार-ए-गेसू को
उसे दीवाने वहशत में तिरा बंद-ए-क़बा समझे
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रहता है कब इक रविश पर आसमाँ
बोसा देते हो अगर तुम मुझ को दो दो सब के दो
देखा किसी का हम ने न ऐसा सुना दिमाग़
हैं बहुत देखे चाहने वाले
मज़ा देखा किसी को ऐ परी-रू मुँह लगाने का
रौनक़-ए-अहद-ए-जवानी अलविदा'अ
तिरा आना मिरे घर हो गया घर ग़ैर के जाना
तुम जाओ रक़ीबों का करो कोई मुदावा
ख़याल-ए-नाफ़ में ज़ुल्फ़ों ने मुश्कीं बाँध दीं मेरी
तेरी महफ़िल में जितने ऐ सितम-गर जाने वाले हैं
फाड़ कर ख़त उस ने क़ासिद से कहा
खोला दरवाज़ा समझ कर मुझ को ग़ैर