ख़याल-ए-नाफ़ में ज़ुल्फ़ों ने मुश्कीं बाँध दीं मेरी
शनावर किस तरह गिर्दाब से बे-दस्त-ओ-पा निकले
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तेरी महफ़िल में जितने ऐ सितम-गर जाने वाले हैं
हैं बहुत देखे चाहने वाले
अगर उल्टी भी हो ऐ 'मशरिक़ी' तदबीर सीधी हो
मिरा ये ज़ख़्म सीने का कहीं भरता है सीने से
वुसअ'त-ए-बहर-ए-इश्क़ क्या कहिए
आ किधर है तू साक़ी-ए-मख़मूर
चाहने वालों को चाहा चाहिए
ज़ाहिद मिरी समझ में तो दोनों गुनाह हैं
तिरा आना मिरे घर हो गया घर ग़ैर के जाना
डराएगी हमें क्या हिज्र की अँधेरी रात
लटकते देखा सीने पर जो तेरे तार-ए-गेसू को
खोला दरवाज़ा समझ कर मुझ को ग़ैर