जब बोसा ले के मुद्दआ' मैं ने बयाँ किया
बोले ज़ियादा पाँव पसारा न कीजिए
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ऐ शैख़ अपना जुब्बा-ए-अक़्दस सँभालिये
जिस का राहिब शैख़ हो बुत-ख़ाना ऐसा चाहिए
भूल कर ले गया सू-ए-मंज़िल
हैं वही इंसाँ उठाते रंज जो होते ही कज
बोसा देते हो अगर तुम मुझ को दो दो सब के दो
गरेबाँ हम ने दिखलाया उन्हों ने ज़ुल्फ़ दिखलाई
किस से दूँ तश्बीह मैं ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल को तिरी
नाला शब-ए-फ़िराक़ जो कोई निकल गया
कोई उस से नहीं कहता कि ये क्या बेवफ़ाई है
उन बुतों से रब्त तोड़ा चाहिए
की मय से हज़ार बार तौबा
अगर उल्टी भी हो ऐ 'मशरिक़ी' तदबीर सीधी हो