हैं वही इंसाँ उठाते रंज जो होते ही कज
टेढ़ी हो कर डूबती है नाव अक्सर आब में
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वुसअ'त-ए-बहर-ए-इश्क़ क्या कहिए
देखा किसी का हम ने न ऐसा सुना दिमाग़
मिरा ये ज़ख़्म सीने का कहीं भरता है सीने से
रहता है कब इक रविश पर आसमाँ
तेरी महफ़िल में जितने ऐ सितम-गर जाने वाले हैं
मैं वो आतिश-ए-नफ़स हूँ आग अभी
गरेबाँ हम ने दिखलाया उन्हों ने ज़ुल्फ़ दिखलाई
खोला दरवाज़ा समझ कर मुझ को ग़ैर
जब बोसा ले के मुद्दआ' मैं ने बयाँ किया
अगर उल्टी भी हो ऐ 'मशरिक़ी' तदबीर सीधी हो
इलाही ख़ैर हो वो आज क्यूँ कर तन के बैठे हैं
पीते हैं जो शराब मस्जिद में