एक मुद्दत में बढ़ाया तू ने रब्त
अब घटाना थोड़ा थोड़ा चाहिए
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नाला शब-ए-फ़िराक़ जो कोई निकल गया
जो मुँह से कहते हैं कुछ और करते हैं कुछ और
कोई उस से नहीं कहता कि ये क्या बेवफ़ाई है
ज़ाहिद मिरी समझ में तो दोनों गुनाह हैं
आ किधर है तू साक़ी-ए-मख़मूर
मज़ा देखा किसी को ऐ परी-रू मुँह लगाने का
लटकते देखा सीने पर जो तेरे तार-ए-गेसू को
किस से दूँ तश्बीह मैं ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल को तिरी
जब बोसा ले के मुद्दआ' मैं ने बयाँ किया
धर के हाथ अपना जिगर पर मैं वहीं बैठ गया
नासेहा आया नसीहत है सुनाने के लिए