धर के हाथ अपना जिगर पर मैं वहीं बैठ गया
जब उठे हाथ वो कल रख के कमर पर अपना
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ऐ शैख़ ये जो मानें का'बा ख़ुदा का घर है
शैख़ चल तू शराब-ख़ाने में
तुम जाओ रक़ीबों का करो कोई मुदावा
अगर उल्टी भी हो ऐ 'मशरिक़ी' तदबीर सीधी हो
खोला दरवाज़ा समझ कर मुझ को ग़ैर
देखा किसी का हम ने न ऐसा सुना दिमाग़
ब-जुज़ साया तन-ए-लाग़र को मेरे कोई क्या समझे
जब बोसा ले के मुद्दआ' मैं ने बयाँ किया
ख़याल-ए-नाफ़ में ज़ुल्फ़ों ने मुश्कीं बाँध दीं मेरी
ऐ शैख़ अपना जुब्बा-ए-अक़्दस सँभालिये
न चलो मुझ से तुम रक़ीबो चाल
फाड़ कर ख़त उस ने क़ासिद से कहा