चाहने वालों को चाहा चाहिए
जो न चाहे फिर उसे क्या चाहिए
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जब बोसा ले के मुद्दआ' मैं ने बयाँ किया
आ किधर है तू साक़ी-ए-मख़मूर
आशिक़-मिज़ाज रहते हैं हर वक़्त ताक में
खोला दरवाज़ा समझ कर मुझ को ग़ैर
डराएगी हमें क्या हिज्र की अँधेरी रात
तेरी महफ़िल में जितने ऐ सितम-गर जाने वाले हैं
मैं वो आतिश-ए-नफ़स हूँ आग अभी
हैं बहुत देखे चाहने वाले
गरेबाँ हम ने दिखलाया उन्हों ने ज़ुल्फ़ दिखलाई
किस से दूँ तश्बीह मैं ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल को तिरी
तुम जाओ रक़ीबों का करो कोई मुदावा
काली घटा कब आएगी फ़स्ल-ए-बहार में