नाला शब-ए-फ़िराक़ जो कोई निकल गया
नाला शब-ए-फ़िराक़ जो कोई निकल गया
जोश-ए-जुनूँ से चीर के चर्ख़-ओ-ज़ुहल गया
पूछा मिज़ाज इस का जो रश्क-ए-मसीह ने
ले कर मरीज़-ए-इश्क़ सँभाला सँभल गया
निकली ज़बान-ए-शम्अ से क्या बात रात को
सुनते ही जिस को बज़्म में परवाना जल गया
अहद-ए-शबाब चश्म-ए-ज़दन में हुआ तमाम
झोंका था इक नसीम का आ कर निकल गया
दार-ए-फ़ना में कौन है जिस को क़याम है
कोई यहाँ से आज गया कोई कल गया
कैसा ही कोई क्यूँ न हो कोई चालाक शहसवार
गुज़रा जो राह-ए-इश्क़ में वो सर के बल गया
अब आई रात देखें गुज़रती है किस तरह
बंदा-नवाज़ दिन तो बहानों में टल गया
ये ताइर-ए-नफ़स भी तो वापस न आएगा
जब छोड़ कर बदन के क़फ़स से निकल गया
लुत्फ़-ए-कलाम-ए-'मशरिक़ी' उस को रहा भी याद
सुन कर मुशाइ'रा में जो मेरी ग़ज़ल गया
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