सरदार गेंडा सिंह मशरिक़ी कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का सरदार गेंडा सिंह मशरिक़ी (page 1)
नाम | सरदार गेंडा सिंह मशरिक़ी |
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अंग्रेज़ी नाम | Sardar Genda Singh Mashriqi |
ज़ाहिद नमाज़ भूला इधर देख कर तुझे
ज़ाहिद मिरी समझ में तो दोनों गुनाह हैं
तुम जाओ रक़ीबों का करो कोई मुदावा
तिरा आना मिरे घर हो गया घर ग़ैर के जाना
शैख़ चल तू शराब-ख़ाने में
पीते हैं जो शराब मस्जिद में
फाड़ कर ख़त उस ने क़ासिद से कहा
न चलो मुझ से तुम रक़ीबो चाल
मज़ा देखा किसी को ऐ परी-रू मुँह लगाने का
लटकते देखा सीने पर जो तेरे तार-ए-गेसू को
किस से दूँ तश्बीह मैं ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल को तिरी
खोला दरवाज़ा समझ कर मुझ को ग़ैर
ख़याल-ए-नाफ़ में ज़ुल्फ़ों ने मुश्कीं बाँध दीं मेरी
काली घटा कब आएगी फ़स्ल-ए-बहार में
काबा को अगर मानें कि अल्लाह का घर है
जो मुँह से कहते हैं कुछ और करते हैं कुछ और
जब बोसा ले के मुद्दआ' मैं ने बयाँ किया
हैं वही इंसाँ उठाते रंज जो होते ही कज
गो हम शराब पीते हमेशा हैं दे के नक़्द
गरेबाँ हम ने दिखलाया उन्हों ने ज़ुल्फ़ दिखलाई
एक मुद्दत में बढ़ाया तू ने रब्त
धर के हाथ अपना जिगर पर मैं वहीं बैठ गया
डराएगी हमें क्या हिज्र की अँधेरी रात
चाहने वालों को चाहा चाहिए
भूल कर ले गया सू-ए-मंज़िल
ऐ शैख़ ये जो मानें का'बा ख़ुदा का घर है
ऐ शैख़ अपना जुब्बा-ए-अक़्दस सँभालिये
आशिक़-मिज़ाज रहते हैं हर वक़्त ताक में
आगे मेरे न तीखी मार ऐ शैख़
वुसअ'त-ए-बहर-ए-इश्क़ क्या कहिए