मैं ख़ुद को देखूँ अगर दूसरे की आँखों से
मिलेंगी ख़ामियाँ अपने ही शाह-कारों में
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ये कैसे मरहले में फँस गया है मेरा घर मालिक
मैं तुझ से झुक के मिला हूँ मगर ये ध्यान रहे
कोई शिकवा नहीं हम को किसी से
हो लेने दो बारिश हम भी रो लेंगे
सुना है धूप को घर लौटने की जल्दी है
ये ख़ल्क़ सारी हवा मेरे नाम कर देगी
आता रहा हूँ याद मैं उस को तमाम उम्र
ख़ता उस की मुआफ़ी से बड़ी है
ग़ज़ल कहने में यूँ तो कोई दुश्वारी नहीं होती
आसमाँ तू ने छुपा रक्खा है सूरज को कहाँ