ज़माना बड़े शौक़ से सुन रहा था
हमीं सो गए दास्ताँ कहते कहते
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किस नज़र से आप ने देखा दिल-ए-मजरूह को
मुट्ठियों में ख़ाक ले कर दोस्त आए वक़्त-ए-दफ़्न
सुनने वाले रो दिए सुन कर मरीज़-ए-ग़म का हाल
यूँ अकेला दश्त-ए-ग़ुर्बत में दिल-ए-नाकाम था
जिस शख़्स के जीते जी पूछा न गया 'साक़िब'
चल ऐ हम-दम ज़रा साज़-ए-तरब की छेड़ भी सुन लें
वस्ल की उम्मीद बढ़ते बढ़ते थक कर रह गई
सोने वालों को क्या ख़बर ऐ हिज्र
हज़ार फूल लिए मौसम-ए-बहार आए
इबरत-ए-दहर हो गया जब से छुपा मज़ार में
उस के सुनने के लिए जम'अ हुआ है महशर