उस के सुनने के लिए जम'अ हुआ है महशर
रह गया था जो फ़साना मिरी रुस्वाई का
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आप उठ रहे हैं क्यूँ मिरे आज़ार देख कर
हिज्र की शब नाला-ए-दिल वो सदा देने लगे
अपने दिल-ए-बेताब से मैं ख़ुद हूँ परेशाँ
मैं नहीं कहता कि दुनिया को बदल कर राह चल
किस नज़र से आप ने देखा दिल-ए-मजरूह को
सुनने वाले रो दिए सुन कर मरीज़-ए-ग़म का हाल
जिस शख़्स के जीते जी पूछा न गया 'साक़िब'
बला से हो पामाल सारा ज़माना
दीदा-ए-दोस्त तिरी चश्म-नुमाई की क़सम
मुट्ठियों में ख़ाक ले कर दोस्त आए वक़्त-ए-दफ़्न
ग़श भी आया मिरी पुर्सिश को क़ज़ा भी आई
ये आह-ओ-फ़ुग़ाँ क्यूँ है दिल-ए-ज़ार के आगे