किस नज़र से आप ने देखा दिल-ए-मजरूह को
ज़ख़्म जो कुछ भर चले थे फिर हवा देने लगे
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हज़ार फूल लिए मौसम-ए-बहार आए
हिज्र की शब नाला-ए-दिल वो सदा देने लगे
उस के सुनने के लिए जम'अ हुआ है महशर
जिस शख़्स के जीते जी पूछा न गया 'साक़िब'
चल ऐ हम-दम ज़रा साज़-ए-तरब की छेड़ भी सुन लें
बाग़बाँ ने आग दी जब आशियाने को मिरे
असीर-ए-इश्क़-ए-मरज़ हैं तो क्या दवा करते
बस ऐ फ़लक नशात-ए-दिल का इंतिक़ाम हो चुका
यूँ अकेला दश्त-ए-ग़ुर्बत में दिल-ए-नाकाम था
सोने वालों को क्या ख़बर ऐ हिज्र
वस्ल की उम्मीद बढ़ते बढ़ते थक कर रह गई