कहने को मुश्त-ए-पर की असीरी तो थी मगर
ख़ामोश हो गया है चमन बोलता हुआ
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बू-ए-गुल फूलों में रहती थी मगर रह न सकी
मिलता जो कोई टुकड़ा इस चर्ख़-ए-ज़बरजद में
आप उठ रहे हैं क्यूँ मिरे आज़ार देख कर
ज़माना बड़े शौक़ से सुन रहा था
ये आह-ओ-फ़ुग़ाँ क्यूँ है दिल-ए-ज़ार के आगे
कौन इन लाखों अदाओं में मुझे प्यारी नहीं
हिज्र की शब नाला-ए-दिल वो सदा देने लगे
हज़ार फूल लिए मौसम-ए-बहार आए
किस नज़र से आप ने देखा दिल-ए-मजरूह को
आधी से ज़ियादा शब-ए-ग़म काट चुका हूँ
दीदा-ए-दोस्त तिरी चश्म-नुमाई की क़सम