हिज्र की शब नाला-ए-दिल वो सदा देने लगे
सुनने वाले रात कटने की दुआ देने लगे
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आप उठ रहे हैं क्यूँ मिरे आज़ार देख कर
कहने को मुश्त-ए-पर की असीरी तो थी मगर
मिलता जो कोई टुकड़ा इस चर्ख़-ए-ज़बरजद में
ये आह-ओ-फ़ुग़ाँ क्यूँ है दिल-ए-ज़ार के आगे
चल ऐ हम-दम ज़रा साज़-ए-तरब की छेड़ भी सुन लें
जिस शख़्स के जीते जी पूछा न गया 'साक़िब'
सोने वालों को क्या ख़बर ऐ हिज्र
यूँ अकेला दश्त-ए-ग़ुर्बत में दिल-ए-नाकाम था
न आसमान है साकित न दिल ठहरता है
उस के सुनने के लिए जम'अ हुआ है महशर