बू-ए-गुल फूलों में रहती थी मगर रह न सकी
मैं तो काँटों में रहा और परेशाँ न हुआ
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सुनने वाले रो दिए सुन कर मरीज़-ए-ग़म का हाल
न आसमान है साकित न दिल ठहरता है
आप उठ रहे हैं क्यूँ मिरे आज़ार देख कर
जिस शख़्स के जीते जी पूछा न गया 'साक़िब'
सोने वालों को क्या ख़बर ऐ हिज्र
बाग़बाँ ने आग दी जब आशियाने को मिरे
हिज्र की शब नाला-ए-दिल वो सदा देने लगे
कहाँ तक जफ़ा हुस्न वालों की सहते
मैं नहीं कहता कि दुनिया को बदल कर राह चल
ग़श भी आया मिरी पुर्सिश को क़ज़ा भी आई
यूँ अकेला दश्त-ए-ग़ुर्बत में दिल-ए-नाकाम था