बाग़बाँ ने आग दी जब आशियाने को मिरे
जिन पे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे
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हिज्र की शब नाला-ए-दिल वो सदा देने लगे
मुट्ठियों में ख़ाक ले कर दोस्त आए वक़्त-ए-दफ़्न
आधी से ज़ियादा शब-ए-ग़म काट चुका हूँ
सोने वालों को क्या ख़बर ऐ हिज्र
कहाँ तक जफ़ा हुस्न वालों की सहते
उस के सुनने के लिए जम'अ हुआ है महशर
असीर-ए-इश्क़-ए-मरज़ हैं तो क्या दवा करते
बस ऐ फ़लक नशात-ए-दिल का इंतिक़ाम हो चुका
ग़श भी आया मिरी पुर्सिश को क़ज़ा भी आई
मैं नहीं कहता कि दुनिया को बदल कर राह चल
किस नज़र से आप ने देखा दिल-ए-मजरूह को
वस्ल की उम्मीद बढ़ते बढ़ते थक कर रह गई