अपने दिल-ए-बेताब से मैं ख़ुद हूँ परेशाँ
क्या दूँ तुम्हें इल्ज़ाम मैं कुछ सोच रहा हूँ
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मैं नहीं कहता कि दुनिया को बदल कर राह चल
बला से हो पामाल सारा ज़माना
मुट्ठियों में ख़ाक ले कर दोस्त आए वक़्त-ए-दफ़्न
कहने को मुश्त-ए-पर की असीरी तो थी मगर
सुनने वाले रो दिए सुन कर मरीज़-ए-ग़म का हाल
बू-ए-गुल फूलों में रहती थी मगर रह न सकी
यूँ अकेला दश्त-ए-ग़ुर्बत में दिल-ए-नाकाम था
जिस शख़्स के जीते जी पूछा न गया 'साक़िब'
दीदा-ए-दोस्त तिरी चश्म-नुमाई की क़सम
बस ऐ फ़लक नशात-ए-दिल का इंतिक़ाम हो चुका
असीर-ए-इश्क़-ए-मरज़ हैं तो क्या दवा करते
मिलता जो कोई टुकड़ा इस चर्ख़-ए-ज़बरजद में