मिलता जो कोई टुकड़ा इस चर्ख़-ए-ज़बरजद में
मिलता जो कोई टुकड़ा इस चर्ख़-ए-ज़बरजद में
पैवंद लगा देता मैं नफ़्स-ए-मुजर्रद में
बेदारी-ए-फ़ुर्क़त में था रम्ज़ क़यामत का
जागा हूँ कि नींद आए तारीकी-ए-मर्क़द में
इस दफ़्तर-ए-हस्ती में तालीम बहुत कम है
दो हर्फ़ नज़र आए दीबाचा-ए-अबजद में
गो ख़ाक का पुतला हूँ लेकिन कोई क्या समझे
मैं भी कोई शय हूँ जो गर्दूं है मिरी कद में
है ज़ब्त की फ़रमाइश इस दिल से बहुत बेजा
ये क़ुल्ज़ुम-ए-ला-साहिल किस तरह रहे हद में
पहलू में नहीं दिल तो दिल-सोज़ ही आ जाता
इक शम्अ तो जल जाती तारीकी-ए-मर्क़द में
नालों से ये कहता हूँ हिम्मत से न दिल हारें
तारों ने जगह कर ली इस लौह-ए-ज़मुर्रद में
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