तमाम जिस्म की उर्यानियाँ थीं आँखों में
वो मेरी रूह में उतरा हिजाब पहने हुए
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दीवार
ख़ाली बोरे में ज़ख़्मी बिल्ला
मेरे अंदर उसे खोने की तमन्ना क्यूँ है
लोग थे जिन की आँखों में अंदेशा कोई न था
तू जान-ए-मोहब्बत है मगर तेरी तरफ़ भी
वो आग हूँ कि नहीं चैन एक आन मुझे
वो लोग जो ज़िंदा हैं वो मर जाएँगे इक दिन
लोग लम्हों में ज़िंदा रहते हैं
यहीं कहीं पे कभी शोला-कार मैं भी था
हैरानी में हूँ आख़िर किस की परछाईं हूँ
ख़ाक नींद आए अगर दीदा-ए-बेदार मिले
शेर-इमदाद-अली का मेडक