मुझे गुनाह में अपना सुराग़ मिलता है
वगरना पारसा-ओ-दीन-दार मैं भी था
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ख़ामुशी छेड़ रही है कोई नौहा अपना
नए चराग़ जला याद के ख़राबे में
तू जान-ए-मोहब्बत है मगर तेरी तरफ़ भी
ख़ाक नींद आए अगर दीदा-ए-बेदार मिले
वो ख़ुदा है तो मिरी रूह में इक़रार करे
डूब जाने का सलीक़ा नहीं आया वर्ना
दिल ही अय्यार है बे-वज्ह धड़क उठता है
रात अपने ख़्वाब की क़ीमत का अंदाज़ा हुआ
बाद-ए-निस्याँ है मिरा नाम बता दो कोई
रूह में रेंगती रहती है गुनह की ख़्वाहिश
घर
वो दुख जो सोए हुए हैं उन्हें जगा दूँगा