मिट जाएगा सेहर तुम्हारी आँखों का
अपने पास बुला लेगी दुनिया इक दिन
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Gulzar
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ख़ाली बोरे में ज़ख़्मी बिल्ला
मैं ने चाहा था कि अश्कों का तमाशा देखूँ
ये कौन आया शबिस्ताँ के ख़्वाब पहने हुए
अलकुबड़े
हैं सेहर-ए-मुसव्विर में क़यामत नहीं करते
ज़िंदा पानी सच्चा
तू जान-ए-मोहब्बत है मगर तेरी तरफ़ भी
सब कुछ न कहीं सोग मनाने में चला जाए
मुझ को मिरी शिकस्त की दोहरी सज़ा मिली
मैं वही दश्त हमेशा का तरसने वाला
तौजीह
अब घर भी नहीं घर की तमन्ना भी नहीं है