मैं ने चाहा था कि अश्कों का तमाशा देखूँ
और आँखों का ख़ज़ाना था कि ख़ाली निकला
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वो मिरी रूह की उलझन का सबब जानता है
सुर्ख़ गुलाब और बदर-ए-मुनीर
ये कौन आया शबिस्ताँ के ख़्वाब पहने हुए
ख़रगोश की सरगुज़िश्त
लोग थे जिन की आँखों में अंदेशा कोई न था
ख़ुदा के वास्ते मौक़ा न दे शिकायत का
जिस की हवस के वास्ते दुनिया हुई अज़ीज़
मैं अपनी आँखों से अपना ज़वाल देखता हूँ
मैं अपने शहर से मायूस हो के लौट आया
शेर-इमदाद-अली का मेडक
मैं एक रात मोहब्बत के साएबान में था
पाँव मारा था पहाड़ों पे तो पानी निकला