मैं अपने शहर से मायूस हो के लौट आया
पुराने सोग बसे थे नए मकानों में
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एक कुत्ता नज़्म
अजनबी
दुनिया पे अपने इल्म की परछाइयाँ न डाल
मैं उन से भी मिला करता हूँ जिन से दिल नहीं मिलता
मुर्दा-ख़ाना
बद-गुमानी
मैं किसी जवाज़ के हिसार में न था
उम्र इंकार की दीवार से सर फोड़ती है
दर्द के इताब ले दोस्त उसे शुमार कर
मगर उन सीपियों में पानियों का शोर कैसा था
प्यास बढ़ती जा रही है बहता दरिया देख कर
क़त्ल करने का इरादा है मगर सोचता हूँ