ख़ामुशी छेड़ रही है कोई नौहा अपना
टूटता जाता है आवाज़ से रिश्ता अपना
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ख़्वाब को दिन की शिकस्तों का मुदावा न समझ
तू जान-ए-मोहब्बत है मगर तेरी तरफ़ भी
मैं वही दश्त हमेशा का तरसने वाला
हद-बंदी-ए-ख़िज़ाँ से हिसार-ए-बहार तक
दुनिया पे अपने इल्म की परछाइयाँ न डाल
यहीं कहीं पे कभी शोला-कार मैं भी था
हादसा ये है कि हम जाँ न मोअत्तर कर पाए
शेर-इमदाद-अली का मेडक
वक़्त अभी पैदा न हुआ था तुम भी राज़ में थे
ज़िंदा पानी सच्चा
ज़िंदा रहने के तज़्किरे हैं बहुत
जिस की हवस के वास्ते दुनिया हुई अज़ीज़