ख़ाक मैं उस की जुदाई में परेशान फिरूँ
जब कि ये मिलना बिछड़ना मिरी मर्ज़ी निकला
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मैं तेरे ज़ुल्म दिखाता हूँ अपना मातम करने के लिए
तमाम जिस्म की उर्यानियाँ थीं आँखों में
ये किस ने भरम अपनी ज़मीं का नहीं रक्खा
हमारी तबाही में कुछ उस का एहसाँ भी है
नए चराग़ जला याद के ख़राबे में
मुझ में सात समुंदर शोर मचाते हैं
दुनिया
मुद्दत हुई इक शख़्स ने दिल तोड़ दिया था
मुहासबा
दुनिया पे अपने इल्म की परछाइयाँ न डाल
लोग लम्हों में ज़िंदा रहते हैं
रेत की सूरत जाँ प्यासी थी आँख हमारी नम न हुई