हम तंगना-ए-हिज्र से बाहर नहीं गए
तुझ से बिछड़ के ज़िंदा रहे मर नहीं गए
Mir Taqi Mir
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Javed Akhtar
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Faiz Ahmad Faiz
Jaun Eliya
Rahat Indori
Gulzar
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वही आँखों में और आँखों से पोशीदा भी रहता है
सब कुछ न कहीं सोग मनाने में चला जाए
अभी नज़र में ठहर ध्यान से उतर के न जा
मैं अपनी आँखों से अपना ज़वाल देखता हूँ
तू जान-ए-मोहब्बत है मगर तेरी तरफ़ भी
नामों का इक हुजूम सही मेरे आस-पास
प्यास बढ़ती जा रही है बहता दरिया देख कर
ये कौन आया शबिस्ताँ के ख़्वाब पहने हुए
बदन चुराते हुए रूह में समाया कर
सुब्ह तक रात की ज़ंजीर पिघल जाएगी
हिरास फैल गया है ज़मीन-दानों में
घर