मुहासरा
ख़्वाब की बालकनी
बालकनी पर ये सरकती हुई परछाईं मिरी...
सामने बालकनी के नीचे
बर्फ़ में लिथड़ा हुआ
रौशनी रोता हुआ बल्ब अभी ज़िंदा है
एक एहसास-ए-ज़ियाँ बाक़ी है
रात के ज़ीना-ए-पेचाँ से उतरने लगी तन्हाई मिरी
इस के कतबे पे तबाही का ये ताज़ा बोसा
सिर्फ़ बोसे का निशाँ बाक़ी है
नीम-जाँ दाएरा-ए-नौहा-गिराँ बाक़ी है
रूह के तार खिंचे हैं जिन पर
वक़्त वामाँदा परिंदे की तरह
लाम
टे
काफ़
अलिफ़
हुआ चीख़ता है
मौत अतराफ़-ओ-जवानिब में
किसी वहशी दरिंदे की तरह फिरती है
जिस्म के चारों तरफ़
दर्द की तारीक फ़सील
ज़ात के हब्स में कुम्हला गई आवाज़ मिरी
ग़म के यलग़ार से दिल बंद हुआ
क़ल्ब-ए-पैवंदी-ए-ग़म तो होगी
शहर में कोई धड़कता हुआ दिल
दिल... की कोई ताज़ा क़लम तो होगी
(468) Peoples Rate This