जिस रात नहीं आता हूँ मैं, मेरे घर में होता है कोई
इस बिस्तर पर सोता है कोई
इस कमरे की दहलीज़ पर सर रख कर रोता है कोई
ये छुप छुप कर रोने वाला अपनी ही तरह महरूम न हो
मग़्मूम न हो, मज़लूम न हो
मुमकिन है उसे भी छुप छुप कर रोने का सबब मालूम न हो
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पोस्टर
मुझ को मिरी शिकस्त की दोहरी सज़ा मिली
बाकिरा
दुनिया पे अपने इल्म की परछाइयाँ न डाल
बुझे लबों पे है बोसों की राख बिखरी हुई
अब घर भी नहीं घर की तमन्ना भी नहीं है
तू जान-ए-मोहब्बत है मगर तेरी तरफ़ भी
जिस की हवस के वास्ते दुनिया हुई अज़ीज़
मैं अपनी आँखों से अपना ज़वाल देखता हूँ
वहशत दीवारों में चुनवा रक्खी है
मेरी आँखों में अनोखे जुर्म की तज्वीज़ थी
एक दिन ज़ेहन में आसेब फिरेगा ऐसा